पोलिटिकल – पोष्टमार्टम: उपराष्ट्रपति के इस्तीफे की राजनीतिक परतें! कारण – स्वास्थ या फिर सत्ता का संकेत?

नई दिल्ली।। 21 जुलाई 2025 भारतीय राजनीति के लिए एक असामान्य दिन था। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा कार्यकाल के मध्य में दिया गया यह इस्तीफा न केवल असामान्य है, बल्कि इसके पीछे के कारणों पर कई सवाल भी खड़े करता है।
कारणः स्वास्थ्य या एक बहाना—?
धनखड़ जी ने अपने इस्तीफे में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि वे चिकित्सकीय सलाह के अनुसार यह निर्णय ले रहे हैं। मार्च 2025 में उनकी एंजियोप्लास्टी हुई थी और उन्हें कुछ समय के लिए AIIMS में भी भर्ती कराया गया। यह तर्क एक हद तक जायज़ प्रतीत होता है जब तक हम ये नहीं देखते कि इस्तीफे से सिर्फ कुछ घंटे पहले उन्होंने राज्यसभा के मानसून सत्र का उद्घाटन किया था।यदि उनकी तबीयत वाकई इतनी गंभीर थी तो क्या संसद की अध्यक्षता करना संभव था? या फिर यह पद छोड़ने का निर्णय इतना अचानक था कि इसमें तात्कालिक परिस्थितियाँ नहीं बल्कि कोई राजनीतिक दबाव भूमिका निभा रहा था?
विपक्ष के आरोप और सत्ता की चुप्पी—
तृणमूल कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इसे एक दबाव में लिया गया निर्णय करार दिया है। उनका कहना है कि एनडीए सरकार ने धनखड़ पर परोक्ष रूप से दबाव डाला या तो किसी नीति असहमति को लेकर या किसी अंदरूनी संघर्ष के कारणाविपक्ष का यह भी आरोप है कि कुछ महीनों से उपराष्ट्रपति का रुख अधिक स्वतंत्र होता जा रहा था और यह सत्ता के कुछ गुटों को स्वीकार्य नहीं था। वहीं भाजपा ने इस पूरे घटनाक्रम को विपक्ष की घिसी-पिटी साजिश वाली सोच कहा और यह तर्क दिया कि धनखड़ पर विपक्ष पहले भी हमलावर रहा है और अब वह खुद ही उनके फैसले पर सवाल उठा रहा है। भारतीय संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति का इस्तीफा राष्ट्रपति को लिखित पत्र देकर दिया जाता है। यह स्वीकार होते ही तुरंत प्रभावी हो जाता है। अब अगले छह महीनों के भीतर नए उपराष्ट्रपति का चुनाव अनिवार्य है। राज्यसभा की अध्यक्षता तब तक उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह द्वारा की जाएगी। लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि क्या कार्यपालिका की सत्ता इस मौके का उपयोग किसी अपने राजनीतिक हित में करेगी?
समय की अजीब संगतिः संसद सत्र और इस्तीफा—
ध्यान देने वाली बात यह है कि संसद का मानसून सत्र इस्तीफे के दिन ही शुरू हुआ था। ठीक उसी दिन जब देश को सशक्त नेतृत्व और दिशा की आवश्यकता थी एक संवैधानिक स्तंभ अचानक गायब हो गया। यह केवल एक स्वास्थ्यगत संयोग था या एक राजनीतिक समय निर्धारण? ऐसे सवालों का उत्तर हम तत्काल भले न दे सकें लेकिन लोकतंत्र में सवाल पूछना ही एक जरूरी कर्म है।
लोकतंत्र की पारदर्शिता पर सवाल—
श्री धनखड़ का इस्तीफा भारतीय राजनीति के लिए सिर्फ एक स्वास्थ्य आधारित ‘निजी निर्णय’ नहीं था यह लोकतंत्र के भीतर मौजूद पर्दे के पीछे की सत्ता-राजनीति को उजागर करने वाली घटना भी बन गया है। विपक्ष को इसे चुनावी हथियार की तरह नहीं बल्कि संवैधानिक पारदर्शिता की मांग के रूप में उठाना चाहिए। वहीं सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि यह इस्तीफा केवल स्वास्थ्य कारणों तक सीमित है या फिर कोई राजनीतिक पुनर्गठन इस कथित ‘शारीरिक थकान’ के पीछे छिपा है। क्या आपको लगता है कि एक संवैधानिक पद से अचानक हटने का निर्णय इतना सरल हो सकता है? क्या सत्ता के गलियारों में ऐसे निर्णय वास्तव में स्वतंत्र होते हैं? क्या देश को एक ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए जहां हर इस्तीफे के पीछे की वजह सिर्फ चिकित्सा न हो बल्कि राजनीतिक ईमानदारी भी हो?