
नई दिल्ली।। इस्राईल-ईरान के बीच छिड़े आधुनिक युद्ध ने पूरे विश्व को स्तब्ध व चिंतित कर दिया है। इस्राईल गत कई वर्षों से ईरान को युद्ध में खींचने की पूरी कोशिश कर रहा था परन्तु ईरान सीधे युद्ध में कूदने से बचता आ रहा था। परन्तु गत 13 जून को इस्राईल ने ईरान पर एक बड़ा हवाई हमला कर दिया। इस हमले के कुछ ही समय बाद इस्राईली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने अपने एक टी वी प्रसारण में इस हमले को उचित ठहराते हुये ईरान पर परमाणु बम बनाने का प्रयास करने का आरोप लगाया और अपनी चिंता दोहराई कि ईरान का परमाणु बम इस्राईल को नष्ट कर सकता है। इस्राईल ने ईरान के कई परमाणु वैज्ञानिक और शीर्ष सेना कमांडर भी मार दिये। इस्राईल ने 13 जून को ईरान पर हमला उस समय किया जबकि दो दिन बाद ही यानी 15 जून को ईरान और अमरीका के मध्य परमाणु समझौता होने की तारीख तय थी और यह समझौता किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की उम्मीद भी की जा रही थी। परन्तु इस्राईल ने समझौते के पहले ही हमला कर ईरान को बड़ा धोका दे दिया। इस्राईली हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी यह कहकर सबको चौंका दिया कि उन्हें इस हमले की पहले से जानकारी थी और इस हमले में कई ईरानी कट्टरपंथी (परमाणु वार्ताकार) मारे गए हैं। उन्होंने ईरान को चेतावनी दी कि अगर वह समझौता नहीं करता, तो और बड़े हमले झेलने पड़ सकते हैं। यही नहीं बल्कि ट्रंप ने इस्राईल की पीठ थपथपाते हुये इस्राईली हमलों को शानदार बताया और कहा कि ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने की इच्छा छोड़नी होगी। साथ ही ट्रंप ने अमेरिका को इस्राईल का सबसे बड़ा सहयोगी भी बताया। साफ़ है ईरान पर इस्राईल द्वारा धोखे से किये गये इस हमले का अमेरिका भी बराबर का साझीदार है।
अब जरा 2003 के उस दौर को भी याद कीजिये जब इराक़ में सद्दाम हुसैन के शासनकाल में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू, बुश प्रशासन, ने यह दावा किया था कि सद्दाम हुसैन के पास रासायनिक, जैविक और संभवतः परमाणु हथियार भी हैं जो वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा हो सकते हैं। यह दावा खुफिया जानकारी पर आधारित बताया गया था। इसी खुफ़िया जानकारी को बहाना बनाकर अमेरिका ने ऑपरेशन इराकी प्रीडम के नाम से इराक़ पर बड़ी सैन्य कार्रवाई की और इराक को तबाह कर के छोड़ा। यहाँ तक कि स्थानीय अदालत का गठन कर सद्दाम हुसैन को फांसी पर चढ़ा दिया। इराक में सत्ता परिवर्तन के बाद वहां रासायनिक, जैविक और सामूहिक विनाश के हथियार होने की जानकारी गृलात साबित हुई। वहां ऐसे हथियार होने के कोई सबूत नहीं मिले। जगजाहिर है कि अमेरिका द्वारा इराक़ पर सैन्य कार्रवाई वहां के तेल संसाधनों पर नियंत्रण और मध्य पूर्व में अमेरीकी सामरिक प्रभाव बढ़ाने की इच्छा के तहत की गयी । इराक की तबाही व सत्ता परिवर्तन के बाद अमेरिका ने यह तर्क भी दिया था कि सद्दाम हुसैन का तानाशाही शासन इराकी जनता और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए हानिकारक था। बहरहाल आज वही अमेरिका जिसने केवल इराक ही तबाह करने की कोशिश नहीं की बल्कि वह जापान पर 6 और 9 अगस्त 1945 को परमाणु बम गिराने का भी गुनहगार है. वह अमेरिका जो कोरिया, ग्वाटेमाला, इंडोनेशिया, क्यूबा, कांगो, लाओस, वियतनाम, कंबोडिया, ग ने डा. लेबनान, सीरि या, लीबिया, अल साल्वाडोर, निकारागुआ, ईरान (1987) पनामा, इराक, कुवैत, सोमालिया, बोस्त्रिया, सूडान, अफ़ग़ानिस्तान, योगोस्लाविया जैसे देशों पर हमले करने व वहां की सत्ता को अस्थिर करने का ज़िम्मेदार हो, क्या वह अमेरिका तय करेगा कि किस देश को परमाणु शस्त्र रखना चाहिए और किसे नहीं? या फिर फ़िलिस्तीन की जमीन पर अमेरिका ब्रिटेन की शह पर कब्ज़ा जमाये बैठा वह अवैध देश इस्राईल जिसपर गुज़ा में लगभग 82,000 लोगों को मारने व लगभग 20 लाख लोगों को बेघर कर क्षेत्र में मानवीय संकट खड़ा का आरोप है वह तय करेगा कि परमाणु शस्त्र किसे रखना चाहिए और किसे नहीं? जो देश स्वयं पूरे विश्व में अस्थिरता फैलाने, क्षेत्रीय संघर्ष भड़काने, शस्त्रों के व्यवसाय तथा तेल जैसी सम्पदा पर गिद्ध दृष्टि रखते हों पड़ोसी देशों में फूट डलवाकर युद्ध भड़काना ही जिनका वयवसाय बन चुका हो वह देश कैसे निर्धारित कर सकते हैं कि परमाणु शस्त्र किसे रखना चाहिये किसे नहीं ? आज विश्व में जिनदेशों के पास परमाणु शस्त्र हैं उनमें सबसे बड़ा जखीरा संयुक्त राज्य अमेरिका के पास है। इसके अतिरिक्त रूस, चीन, फ्रांस, यूके (ब्रिटेन), इस्त्राईल, उत्तर कोरिया, भारत व पाकिस्तान जैसे देश भी परमाणु शस्त्र धारक देशों में गिने जाते हैं। बावजूद इसके कि ईरान अभी तक यह कहता आया है कि उसके द्वारा किया जा रहा परमाणु संवर्धन उसकी ऊर्जा सम्बन्धी ज़रूरतों को पूरा करने जैसे शांतिपूर्ण कार्यों के लिये है। फिर भी यह क्यों जरूरी नहीं कि मानवता का सबसे बड़ा हत्यारा देश इजराईल जो भूखे, निहत्थे बच्चों व बुजुर्गों औरतों का लगातार नरसंहार करता आ रहा, जो अपनी सैन्य शक्ति और अमेरिका की शह के बल पर अपने कृब्ज़े की ज़मीन का लगातार विस्तार करता जा रहा हो जो उसे पनाह देने वाले देश फिलिस्तीन के लोगों को ही उनकी मातृभूमि से बेदखल करने की साजिश रच रहा हो, जो अमरीका के इशारे पर पूरे मध्य एशिया में फूट डालने वाली राजनीति कर रहा हो आखिर क्षेत्रीय संतुलन बनाने के लिये उसके सामने ईरान जैसे देश का डटकर खड़ा होना ज़रूरी क्यों नहीं ? क्या इस पूरे मध्य क्षेत्र को अमेरिका इस्त्राईल के रहम-ने-करम पर जीने के लिये छोड़ देना चाहिये? ताकि जब चाहें और जिस देश को चाहें गजा, यमन व लेबनान बना सकें ? निश्चित रूप से युद्ध से बुरी कोई स्थिति नहीं होती। हमेशा इस त्रासदी का शिकार बेकुसूर महिलाएं, बच्चे व बुजुर्ग होते आये हैं। युद्ध से मानवता आहात होती है। सही मायने में तो पूरे विश्व को ही न केवल परमाणु शस्त्र मुक्त बल्कि पूरा विश्व निःशस्त्र भी होना चाहिये। परन्तु अमेरिका इजराईल जैसे देशों द्वारा जब अपनी ताकृत का दुरूपयोग दशकों से किया जाता रहा हो और यह सिलसिला लगातार बढ़ता जा रहा हो ऐसे में इन्हें वाक ओवर देने के बजाये इनके सामने अपने स्वाभिमान के लिये संकल्पबद्ध होकर खड़े होना कौन सा जुर्म है ? अमेरिका व इस्राईल के सामने ईरान के सिर उठाकर खड़े होने जैसे फौलादी इरादों की आज दुनिया सराहना कर रही है। परन्तु यह देश आज कभी ईरान के निष्कासित रजा शाह पहलवी के पुत्र के काँधे पर सवार होकर तो कभी भीतरी फूट डालकर कभी मोसाद का इस्तेमाल कर ईरान को अस्थिर करने की पुरजोर कोशिश में लगा है। इनकी गिद्ध दृष्टि इस बात पर टिकी है कि किसी तरह वर्तमान संकल्पवान व स्वाभिमानी ईरानी सत्ता को बेदखल कर अपनी पिड्डू सरकार बनाई जाये और ईरान को अस्थिर कर यहाँ भी मनमर्जी से तेल दोहन किया जा सके। परन्तु शहादत को अपना आभूषण समझने व दास्तान ए करबला से प्रेरणा लेना वाला यह देश अमेरिका व इजराईल की घुड़कियों को कुछ भी नहीं समझ रहा। क्या ईरान को आत्मरक्षा का अधिकार नहीं ? क्या नरसंहार की इबारत लिखने वाले देश ही यह तय करेंगे कि परमाणु शस्त्र कौन रखे और कौन न रखे ?