
ब्यूरो रिपोर्ट नई दिल्ली।। मंगलवार की देर शाम ईरान का इजरायल पर मिसाइल हमला करना कई आशंकाओं को आधार दे रहा है। इजरायल ने बेशक ईरान की ज्यादातर मिसाइलों को अपने मित्र देशों की मदद से हवा में ही नष्ट कर दिया। जिसके कारण उसे ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन उसमें दहशत तो फैली ही। यही कारण है कि इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने तत्काल इस हमले का बदला लेने का एलान कर दिया। ईरान का कहना है कि उसने यह कदम हमास नेता इस्माइल हानिये और हिजबुल्लाह प्रमुख नसरल्लाह की मौत का बदला लेने के लिए उठाया है और अब अगर इजरायल की तरफ से कोई सैन्य कार्रवाई होती है। तो जंग भड़केगी। यहां दो घटनाओं का जिक्र आवश्यक है। पहली अप्रैल 2024 में ईरान ने ड्रोन व मिसाइलों द्वारा इजरायल पर हमला बोला था और उस वक्त भी उसे नुकसान ज्यादा नहीं हुआ क्योंकि इजरायल ने उनको मार गिराया था। ईरान का कहना था। यह हमला उसने सीरिया में ईरानी दूतावास पर हमले के बदले में किया था। जिसमें 15 से अधिक ईरानी कर्मचारियों की मौत हुई थी। दूसरी घटना जनवरी 2020 की है। जब अमेरिका ने इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड के प्रमुख जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या कर दी थी। जवाबी कार्रवाई करते हुए ईरान ने मिसाइलों के जरिये इराक में मौजूद अमेरिकी सैन्य अड्डों पर हमला बोला था। जिसके बाद मामला शांत हो गया था। तब बेशक तनाव के बादल छंट गए थे लेकिन इस वक्त क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय तस्वीर बदली हुई है। एक बड़ा बदलाव तो यही है कि इजरायली प्रधानमंत्री अब आक्रामक नीति अपना रहे हैं। इसकी वजह यही है कि उन पर पिछले कई महीनों से घरेलू राजनीति का दबाव तो है ही। गाजापट्टी पर हमले के बाद जिसमें 40 हजार से अधिक फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव भी काफी अधिक बढ़ गया है। उन्होंने घोषणा की है कि ईरान के दोनों छद्म गुट हमास और हिजबुल्लाह का सफाया होकर ही रहेगा। हिजबुल्लाह के खिलाफ तो कई हफ्तों से इजरायल का आक्रमण जारी है। पहले पेजर वॉकीटॉकी विस्फोट से इजरायली खुफिया एजेंसियों ने हिजबुल्लाह के संचार तंत्र को ध्वस्त किया और फिर नसरल्लाह के साथ-साथ कई हिजबुल्लाह नेताओं को मौत के घाट उतार दिया। लगता यही है कि नेतन्याहू की महत्वाकांक्षा अब हमास या हिजबुल्लाह तक ही सीमित नहीं रह गई है। 1 अक्टूबर के अपने टीवी संदेश में उन्होंने ईरान की जनता को उनके सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई के खिलाफ उकसाया और अपील की कि वे अयातुल्ला सरकार को पलटकर एक नई सरकार बनाएं और आधुनिक ईरान की बुनियाद रखें।उल्लेखनीय है कि ईरान में एक तबका है। जो अयातुल्ला सरकार से संतुष्ट नहीं है और ईरान का आधुनिकीकरण चाहता है। हालांकि ऐसा कोई सुबूत भी नहीं है कि ईरान किसी क्रांति के लिए तैयार है। बहरहाल सवाल यही है कि अब आगे क्या होगा ? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस पर चिंतन करेगी ही और यह अनुमान स्वाभाविक है कि वह इजरायल और ईरान दोनों से शांति की अपील करेगी। सच यह भी है कि दुनिया की महाशक्तियां महायुद्ध नहीं चाहतीं। अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव में उलझा हुआ है और रूस फिलहाल यूक्रेन मोर्चा पर ही सिमटे रहना चाहता है। रही बात चीन की तो वह अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में लगा है। अरब देशों विशेषकर खाड़ी के मुल्कों की तरफ से भी कोई आक्रामक बयान नहीं आया है और लगता यही है कि वे भी जंग के पक्ष में नहीं हैं।
भारत भी शांति ही चाहता है और चंद दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेतन्याहू से बात करके यही संदेश दिया था कि बातचीत की मेज पर समस्याओं का हल निकालना चाहिए। यानी अब फैसला नेतन्याहू को लेना है। हमें यह भी देखना होगा कि उन पर घरेलू राजनीति का दबाव कितना बढ़ता है। वैसे ईरान के पास भी कई रास्ते हैं स्थिति को भड़काने के। वह इजरायल पर ही निशाना नहीं लगाए। हो सकता है कि पश्चिम के देशों को दबाव में लाने के लिए खाड़ी के पश्चिमी हिस्से में भी वह कार्रवाई करे। जिसकी वजह से तेल के बाजार पर असर पड़ेगा। यदि ऐसा हुआ तो उसका सीधा असर विश्व की आर्थिक व्यवस्था पर पड़ेगा। जो कोई नहीं चाहेगा। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि 7 अक्तूबर को इजरायल पर हमास के हमले की बरसी है। पिछले साल इसी दिन हमास के लड़ाकों ने इजरायल में दाखिल होकर 1,200 इजरायलियों को मौत के घाट उतार दिया था और कई विदेशी नागरिकों सहित 250 लोगों को बंधक बना लिया था। अनुमान है कि 100 के करीब बंधक अब भी हमास के कब्जे में हैं और अमेरिका, कतर व मिस्र पूरी कोशिश में हैं कि हमास और इजरायल के बीच कोई समझौता हो जाए लेकिन ऐसा अब तक नहीं हो सका है। जाहिर है 7 अक्तूबर की तारीख जैसे-जैसे निकट आती जाएगी। इजरायल के घाव वैसे-वैसे हरे होते जाएंगे। यह भी स्वाभाविक है कि गाजापट्टी के लोगों में जिनमें से 40 हजार की मौत बीते एक साल में इजरायली जवाबी प्रतिक्रिया में हुई है आक्रोश बढ़ेगा। दुनिया के उस बड़े तबके में भी बहस तेज होगी। जो यह मानते हैं कि इजरायल की जवाबी कार्रवाई बिल्कुल असंगत थी।
जब भावनाएं भड़कती हैं तो शांति के रास्ते धुंधले पड़ जाते हैं। विश्व की बड़ी शक्तियों की शांति की कोशिशों में बाधाएं तो आएंगी लेकिन यह कयास गलत नहीं है कि अपनी विवशताओं के कारण वे हरसंभव कोशिश करेंगी कि इजरायल और ईरान दोनों के हाथ रोके जाएं। इससे पश्चिम एशिया की स्थिति में दूरगामी बदलाव तो नहीं होगा लेकिन जो मौजूदा संकट है। वह शायद टल सकता है। वैसे यहां यह शायद शब्द ही अभी सबसे अधिक मौजूंद है क्योंकि अभी परिस्थिति ऐसी है कि कोई भी ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि हालात किधर का रुख लेंगे? भारत के लिए भी पश्चिम एशिया में शांति बहुत जरूरी है। खाड़ी के देशों में लाखों भारतीय रहते हैं और उनसे हमारे आर्थिक व सामरिक हित जुड़े हुए हैं। ऐसे में विदेश नीति की पुकार यही है कि हम सभी देशों के साथ बातचीत के रास्ते खुले रखें। इजरायल, ईरान और खाड़ी देशों के साथ भी।