अपनों की लाशों पर होती सियासत की अघोर-साधना

प्रयागराज एजेंसी।। यह दरअसल एक पूरा पैकेज है जो लोकतंत्र कहलाता है। इन मूल्यों का संरक्षण एक जनतात्रिक प्रणाली में ही सम्भव है। इसलिये पिछले करीब आठ दशकों में कई सरकारें आयीं परन्तु किसी ने इन तत्वों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की थी। कोई भी सत्ता न निर्मम हुई और न ही उसने अपनी प्रजा को हिंसक या नफरती बनने के लिये उकसाया या उसका मार्गदर्शन किया। भारत ने अपनों की लाशों पर बैठकर अघोर साधना सीख ली है। जिस सियासत को भारत की करूणा और संवेदना के परम्परागत मूल्यों को आगे बढ़ाना था, उसने सभी को विकास के रास्तों की बजाये सूने श्मशानों की ओर मोड़ दिया है जहां हमारे मूल्यों की लाशें जल रही हैं। सत्ता मजे से इन चिताओं की आग तापती है और उनके ठंडे होने पर उसकी राख शरीर पर मलकर संन्यासी का रूप धारण कर सम्मान बटोर ही है। देश में चल रही यह अघोर-साधना कुछ दलों को तो तात्कालिक लाभ पहुंचा सकती है पर यकीन मानिये। यह एक दिन पूरे देश को श्मशान में बदलकर रख देगी जिसमें सतत चिताएं जलेंगी और उनमें अघोरियों का राज होगा। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जारी महाकुम्भ में 29 व 30 जनवरी की दर्मियानी रात को हुई भगदड़ में लोगों के कुचले जाने के बाद जो कुछ हो रहा है। उसे देखकर तो कम से कम यही कहा जा सकता है। बेशक भारत हादसों का देश है जहां प्रकृक्तिजन्य हों या मानव जनित, नाना प्रकार की दुर्घटनाएं होती रहती हैं। देशवासियों के जेहन में अनेक ऐसे हादसे हैं जिनमें न जाने कितने लोगों ने जानें गंवाई या घायल हुए हैं; और यह कोई आज की बात नहीं है, लेकिन ऐसे किसी भी हादसे पर यह देश न तो मुस्कुराता था न हंसता था। न अट्टहास करता था। नयी बात यह है कि भारतीय समाज की संवेदना का तत्व भाप बनकर उड़ गया है। अब उसे किसी भी दुर्घटना पर गम नहीं होता। पुलों के गिरने से लोग मरें चाहें बाढ़ में बह जायें, एक के बाद एक ट्रेनें पलटती जायें या भीड़ में लोग दब जायें, कोरोना में जनता मारी जाये या नावें डूब जायें अब वह न संवेदना प्रकट करता है और न ही उसकी करूणा जागती है वह उसमें धर्म जाति, सम्प्रदाय और राजनीति का एंगल ढूंढ़ता है। किसी भी दुखद घटना पर पहले भारत बिलखता था। पर अब बड़ी से बड़ी त्रासदी को वह टॉनिक की तरह पीता है और ताकत बटोरता है। बस, यही नया भारत है! यही उसकी अधोर साधना है जिसमें वह राजनीति के पंच-मकार का सेवन कर रहा है। छल-प्रपंच वाली सियासत का मल-मूत्र हो या जनता का मांस, सत्ता की मदिरा हो या फिर अपवित्र सियासी गठबन्धनों से मिलने वाला मैथुन सा सुख उसके लिये अब कुछ भी वर्जित नहीं रहा। वर्तमान राजनीति का सबसे दुखद पहलू यह है कि देश को यतपूर्वक करूणा और संवेदना की उस उदात्त परम्परा से अलग किया जा रहा है जिसके कारण भारत का दुनिया भर में मान है। यह सम्मान ढाई हजार साल पहले गौतम बुद्ध और महावीर ने देश के लिये आविष्कृत किया था। जब उसे भारत भूलता जा रहा था तो महात्मा गांधी एक रिमाइंडर की तरह आये जिन्होंने इसी रास्ते पर चलते हुए दुरूह किस्म की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी। एक तरफ आजादी का संघर्ष चलता रहा तो दूसरी ओर संवेदना और उससे ऊपजे समानता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता सदृश्य मूल्यों को भी भारत ने संजोये रखा था। आजादी के बाद हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने जिन मूल्यों पर देश के नवनिर्माण का ब्लू प्रिंट तैयार किया उनमें सत्य व अहिंसा के साथ स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता, समाजबाद जैसे तत्व प्रमुख थे जो अंतत संवेदना करूणा पर ही आधारित होते हैं। यह दरअसल एक पूरा पैकेज हैजो लोकतंत्र कहलाता है। इन मूल्यों का संरक्षण एक जनतांत्रिक प्रणाली में ही सम्भव है। इसलिये पिछले करीब आठ दशकों में कई सरकारें आयीं परन्तु किसी ने इन तत्वों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की थी। कोई भी सत्ता न निर्मम हुई और न ही उसने अपनी प्रजा को हिंसक या नफरती बनने के लिये उकसाया या उसका मार्गदर्शन किया। इसी मार्ग पर चलकर भारत ने जो प्रगति की उससे साबित हुआ कि ये मूल्य भौतिक जीवन को भी बेहतर बनाने में मददगार हैं। इसके पीछे एक और बड़ा कारण यह भी है कि हमारे राजनीतिक पुरखे देश को आधुनिक बनाना चाहते थे और आधुनिकता की सबसे बड़ी पहचान संवेदनशीलता है। औद्योगिक क्रांति के साथ प्रारम्भ नवयुग के दौरान हुए अनेक दार्शनिकों विचारकों एवं सुधारवादी नेताओं ने समाज और व्यवस्था को मानवीय चेहरा पहनाने के जो उपक्रम किये, वही देश में संवेदना की विस्तार यात्रा है और निरंतरता भी। मानवीय संवेदना को संरक्षित रखने और विकसित होने के लिये विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। राजतंत्र, सामंती व्यवस्था या तानाशाही ये सारी प्रणालियां संवेदना शून्य होकर ही स्थापित होती हैं और निष्ठुर होकर काम करती हैं। हिंसक गतिविधियां, अमानवीयता, निर्ममता, शोषण, उत्पीड़न और विरोधियों का दमन इनके पाये होते हैं। स्पष्ट है कि जिस व्यवस्था में लोकतंत्र रहेगा वहीं मानवीय संवेदनाएं संरक्षित संवर्धित हो सकती हैं और जनता द्वारा उसकी मांग भी सम्भव है। इसी शासन प्रणाली में एक संवेदनशील समाज निर्माण की सर्वाधिक सम्भावनाएं होती हैं। दुर्भाग्य से कुछ शक्तियों का रास्ता इस वैचारिकी से अलग है। अनेक संगठन एवं व्यक्ति ऐसे हैं जिनके लिए उदाता का मतलब कमजोरी है। अहिंसा उनके लिये कायरता, समानता अवांछनीय, धर्मनिरपेक्षता तुष्टिकरण तथा बन्धुत्व अस्वीकार्य है। पिछले दशक भर से हमारे लोकतांत्रिक जीवन के सारे ही कोमल तत्व सुनियोजित तरीके से समाप्त किये जा रहे हैं। माना यह जाने लगा है कि देश केवल बहुसंख्यकों की मर्जी से ही चलेगा तथा अल्पसंख्यकों का दर्जा दोयम नागरिकों का रहेगा। देश में दो तरह के कानून चलेंगे। शक्तिशाली व सत्ता से जुड़े लोगों के लिये अलग तथा वचितों व कमजोर लोगों के लिये अलहदा। कहने को तो देश में सविधान और कानून है लेकिन वह सबके लिए बराबर है अब यह कोई नहीं कह सकता। देश अब चंद लोगों के हाथों में है जिसका संचालन अब कार्परिट लॉबी करती है। सारी सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएं केंद्रीकृत हो गयी हैं। इस व्यवस्था को बनाने के लिये राज्य आधारित हिंसा तथा प्रशासकीय क्रूरता जरूरी होती है तथा ऐसी जनता तैयार की जाती है जो संवेदनहीन हो। धर्माधता, जातीयता और साम्प्रदायिकता जब बढ़ती है तो परस्पर नफरत और घृणा में भी इज़ाफ़ा होता है। इन सबका उत्स और केन्द्र सत्ता होती है, अत इस मानसिकता के साथ तैयार हुई जनता यह मान लेती है कि जो नज्रिया सत्ता का है वही उसका भी होना चाहिये-यही देशभक्ति है, यही धर्म की सेवा है। अपनी शक्ति को बरकरार रखने के लिये सत्ताएं भी अपने समर्थकों को नफ़रती व हिंसक बनाती हैं; और इस प्रक्रिया की शुरुआत संवेदनहीनता से होती है।पिछले दशक भर का इतिहास देखें तो बलात्कारियों के स्वागत से लेकर उनके साथ खड़े होने और उनका समर्थन देने का रहा है। कोरोना में न जाने कितने लोग नदियों में बहा दिये गये या रेत में दफ़न हुए नागरिक सवाल पूछने की बजाये सत्ता के साथ रहे। अब महाकुम्भ की त्रासदी में अपने ही देश के नागरिकों की मौत पर लोग संजीदा न होकर उसमें राजनीतिक एंगल खोज रहे हैं। कोई बाबाजी कहते हैं कि यहां मरने से मोक्ष मिलेगा तो कोई सवाल करने वाले शंकराचार्य को अपशब्द कह रहा है। संवेदना ही पशुता और मानवता के बीच को विभाजन रेखा खींचती है। भारत की विश्व भर में इसी मूल्य के कारण बड़ी धाक है। यह दुखद है कि भारत इस मूल्य को क्षुद्र राजनीति के चलते त्याग रहा है।